Wednesday 12 April 2017

मन से मानव की दीर्घ बुद्दी

 मानव मन के चमकते सितारे 


सुबह हुई, शाम ढली, 

मौसम बदले, साल गए, देख, मैं वही हूँ, 


सुरज की तरह मैं वही हूँ. 
ना चांद की तरह रोज़ बदला, 
ना बादल की तरह आया और गया, 
देख, उँची चट्टान की तरह वही हूँ.
आंखें निर्दोष है, बाज नही हूँ,
बंजर होकर भी रेगिस्तान नही हूँ,
देख, फुलो में खुशबू की तरह वही हूँ.
मजबूत इरादे, अंदाज वही हूँ,
सुनो मुझे, आवाज़ वही हूँ,
हां वही हूँ, देख यही हूँ.
शोर नही हूँ, कोई और नही हूँ,
एक मछली हूँ, बेख़ौफ नही हूँ.
फिर भी, देख, यही हूँ,
देख वही हूँ!











आत्म विश्वास

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